🌼 अध्याय–1 दिव्य अवतरण🌼
दैवावतार का प्राकट्य: पोखवां की पावन मिट्टी में एक चमत्कारी जन्म
बिहार के मिथिला अंचल का एक साधारण-सा गाँव — पोखवां। चारों ओर हरियाली, मिट्टी में गंगाजल सी शुचिता, और गाँव के मध्य विराजती थीं — वागेश्वरी माई। स्थानीय जनश्रुति कहती है — “जिसे हर कहीं निराशा मिले, वह यहाँ आकर भींची मुट्ठियाँ खोल दे; माई उसकी झोली आशा से भर देती हैं।”
इसी पुण्यभूमि पर एक ऐसी घटना घटने वाली थी, जिसने केवल एक परिवार का नहीं, भारतीय संत-परंपरा का भाग्य बदल देना था।
🌼 एक शिक्षिता, श्रद्धालु माँ
उन दिनों विवाह अक्सर कम आयु में ही हो जाया करता था। परन्तु गुरुदेव की पूज्य माता — जिनदेवी (जिन) — कहती थीं: “ईश्वर की कृपा से मैं मैट्रिक उत्तीर्ण कर इंटरमीडिएट में पढ़ रही थी, तभी मेरा विवाह पोखवां के प्रतिष्ठित जमींदार श्री जगदीश नारायण बाबू से हुआ।” विवाह के पाँच वर्ष बाद गौना हुआ। और इसके बाद भी तीन-चार वर्षों तक गोद सूनी रही। पति-पत्नी शांत, भक्तिमय, संतोषी — पर माता-पिता और परिवार की चिंताएँ समय के साथ बढ़ने लगीं।
🌿 संतान-विहीन वंश, व्याकुल हृदय
गुरुदेव के मातामह — जिनके पाँच पुत्रों में से किसी को संतान न थी — अब अपनी प्रिय पुत्री के दाम्पत्य में भी संतान का प्रकाश न देखकर भीतर तक उदास रहने लगे। अंततः उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए एक पत्र अपने समधी स्व. श्री केशव नारायण शर्मा जी को नाई के हाथ भेजा। पत्र तो समय की धूल बन गया, पर वह क्षण आज भी अमिट है। जैसे ही केशव बाबू ने वह पत्र पढ़ा, उन्होंने हाथ में जल लेकर दृढ़ संकल्प किया। अपने पुत्र जगदीश बाबू को सम्मुख खड़ा करते हुए नाई से बोले— “जाओ, अपने मालिक से कह दो— जब भी संतान होगी, वागेश्वरी माई की कृपा से पहली संतान पुत्र ही होगा।” उनके स्वर में विश्वास नहीं — श्रद्धा की अडिग पत्थर की लकीर थी।
🌺 वागेश्वरी माई: चमत्कार की छाया
पोखवां में विराजमान वागेश्वरी माई स्वयंभू रूप से प्रकट हुई देवी हैं। यहाँ लोग प्रयत्न लेकर नहीं, आस्था लेकर आते हैं — और लौटते हैं ईश्वर की अनुभूति लेकर। जिनके द्वार पर माई की दृष्टि पड़ी, उनके जीवन में चमत्कार हुए। लेकिन अब एक ऐसा चमत्कार होने वाला था, जिसे आने वाली पीढ़ियाँ इतिहास के स्वर्णाक्षरों में दर्ज करेंगी।
🔥 दैवी संकेत: महात्माओं का अनोखा आगमन
संकल्प के केवल दो महीने बाद, गुरुदेव के परमहंस गुरु स्वामी अद्वैतानंद सरस्वती जी, जो उस समय वनखंडी में विराजमान थे, अचानक, बिना किसी सूचना के — पोखवां पहुँच गए। सेवा-सत्कार हुआ। प्रस्थान से पूर्व वे केशव बाबू से बोले— “मेरा एक शिष्य शीघ्र ही तुम्हारे द्वार पर आएगा, उसका विशेष ध्यान रखना।” परन्तु यह कौन होगा? कहाँ से आएगा? कब आएगा? कोई नहीं जानता था। कुछ ही दिनों बाद गुरुदेव की माता जी को गर्भ हुआ। और तब प्रारम्भ हुई एक अद्भुत घटना— प्रतिदिन 10–20 साधु, संन्यासी, महात्मा… कभी वैष्णव वेष में, कभी दिगम्बर साधु, कभी रुद्राक्ष-मुण्डमालाधारी योगी — बिना निमंत्रण, बिना परिचय, बिना कारण — घर की देहरी पर खड़े होते। गाँव वाले कहते — “लगता है घर में कोई देव आत्मा आने वाली है।” घर में जैसे अदृश्य घंटियों की ध्वनि गूँज रही थी।
🌞 माघ शुक्ल पंचमी — सरस्वती पूजा का प्रभात
सन् 1909। माघ शुक्ल पंचमी — ज्ञान की देवी का दिन। भोर के 4 बजकर 30 मिनट। रेवती नक्षत्र की शांत छाया में एक अलौकिक चैतन्य पृथ्वी पर अवतरित हुआ। एक नवजात शिशु… परन्तु मुख पर तेज ऐसा कि दाइयों ने हाथ जोड़ लिए। नेत्रों में गहरी, दैवी करुणा। और ललाट पर शांति की दिव्य आभा। उस क्षण किसी ने भी उस बालक को सामान्य मनुष्य नहीं माना। वह दिन पोखवां की मिट्टी में दिव्यता बनकर अंकित हो गया।
🌟 भविष्यवाणी — धर्मराज या यति-राज
कुछ महीनों बाद फिर स्वामी अद्वैतानंद सरस्वती जी आए। उन्होंने बालक को गोद में लिया, लंबे समय तक मौन दृष्टि से निहारा, और बोल उठे— “इस बालक के चरणों में चक्र है। यह एक स्थान पर स्थिर नहीं रहेगा। यह या तो धर्मराज होगा… या यति-राज।” भविष्यवाणी थी — पर वास्तव में वह भविष्य का उद्घोष था। युगों-युगों की तपस्या का फल, असंख्य जन्मों की साधना का परिणाम — यह बालक आगे चलकर भारतवर्ष के आध्यात्मिक इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित हुआ: “गुरुदेव स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज” — अद्वैत वेदांत के महामहिम, — परमहंसों के मुकुट, — और जगत-कल्याण के प्रतीक।
✨ यह तो बस आरम्भ है…
यह कहानी केवल एक जन्म की नहीं — यह दैवी योजना, ईश्वरीय संकेत, और मानवता के उत्थान की पहली कड़ी है। अब आरम्भ होता है उस शिशु का अद्भुत जीवन, जो संसार में आया साधारण रूप में, पर जिसका लक्ष्य था — समस्त जगत को जागृत करना।
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